०९ मार्च, २०१५

दाटून येई..


दाटून येई अंधार
गहिरा हो आसमंत
ते झेलत टपोरबिंदु
डुलतो हळू प्राजक्त..

या वेड्या काजळवेळी
तव आठवणींचे पूर
पानांतुन ओल्या झरती
गर्भिचे अव्यक्त सूर..

क्षितिजाशी तेवे माझ्या
अंधूक एकटा तारा
आभास तिथे निळसर
अन् इकडे संततधारा..

पडद्याशी जळते ज्योत
पडद्यापलीकडे पाणी
फुलांतून प्राजक्ताच्या
नादतात सर्द विराणी..

पाऊस तिन्हीसांजेला
असाच बरसत राही
मातीत उमटती रेषा
अन् शुभ्रकेशरी काही!


०६ मार्च, २०१५

जाने क्यूँ

जाने क्यूँ ऐसा लगता है..
               तू है कही आसपास
               तू भी करे मेरी तलाश
               मेरी सूनी आँखोंकी प्यास
               बुझाए तेरी बस एक साँस
          मेरे करीब आकर, मुझे गले लगाकर
जाने क्यूँ ऐसा लगता है..

जाने क्यूँ ऐसा होता है..
               के गुनगुनाए रात
               लिए तारोँकी सौगात
               धूपमें हो बरसात
               और छेड़े वो दिलकी बात
          मेरा जहाँ है तू, तूही मेरी आरजू
जाने क्यूँ ऐसा होता है..

जाने क्यूँ चलते रहते है..
                चाहतोंके सिलसिले
                और उल्फ़त की महफ़िले
                क्यूँ हो शिकवे गीले
                गर दिल से दिल हो मिले
          यूँ ही हमसफर के साथ, लिए हाथोंमें हाथ
जाने क्यूँ चलते रहते है..